संतान कई बार ऐसा काम कर देते हैं जो इतिहास बन जाता है, ऐसा ही कवि स्वर्गीय द्वारिकादत्त उत्सुक जी के साथ हुआ।उनके निधन के बाद उनके पुत्रों ने उनके कागज खोजे तो उसमें बहुत सारी कविताएं हाथ लगी। उन्होंने जीवन के रंग अनेक नाम से उनकी कविताओं का संकलन छपवाया। यदि यह संकलन न छपता तो उत्सुक जी की रचनाओं की उत्कृटता का पता भी न चलता। उनके तीन पुत्रों पुत्र डा देवेश शर्मा, डा दिनेश शर्मा और डा राकेश शर्मा का यह प्रयास प्रशंसनीय है।
पंजाब के साहित्य जगत में उत्सुक जी के नाम से प्रसिद्ध द्वारिकादत्त जी का जन्म 15 मार्च 1927 को गुरदासपुर में हुआ । 11 माह की आयु में ही माता –पिता को खो देने के बाद आपका लालन – पालन दादा−दादी ने किया।
आप की प्रारंभिक शिक्षा डीएवी स्कूल अमृतसर और लाहौर में हुई ।पंजाब विश्वविद्यालय से आपने 1954 में हिंदी और 1963 में संस्कृत में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त की ।1957 में उन्होंने डिग्री कॉलेज अमृतसर में हिंदी प्रवक्ता के रूप में काम शुरू कर दिया । 1987 में डीवी कॉलेज अमृतसर से हिंदी प्रवक्ता के रूप में रिटायर हुए ।आपको साहित्य से बड़ा प्रेम था ।आप रात −रात भर जाकर कविताएं लिखते ह। उन्होंने कविता और गीत 1950 के दशक में लिखने शुरू किए। कुछ चलचित्रों की गीत और संवाद भी लिखे ।वे रेडियो −दूरदर्शन पर प्रसारित होने वाले कवि सम्मेलन में भाग लेते थे1 अनेक पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित हुई। आपकी कविताओं में प्रेम , स्नेह, प्रणय बेबसी ,विडंबना कर्तव्य बोध आदि बहुत कुछ है।
वे कहते हैं − आज कांचनमृग सभी को छल रहा है,/पनपति लंका, प्रवंचित जल रहा है।पाप क्या है, पूण्य क्या है, क्या कहूं मैं,/फूल हैं सब बांझ,कांटा फल रहा है।/खोट के कारण चलन जिनका नही था/धूम से सिक्का वही अब चल रहा है।
कवि अपने को मरूस्थल का मृग मानता है। कहता है− मरूस्थल में किसी मृग सा भटकता मैं,लक्ष्य मुझसे भागता है दूर,जैसे लक्ष्य मृग हो, मैं बधिक हूं।और भटकन और टूटन, सोचता हूं,खोज किसकी कर रहा हूं ॽ।
घास और बरगद नामक कविता में कवि भीड़ को घास मानता है। कहता है।घास एक भीड़ है, जो सिर तान कर भी ,ऊपर नहीं उठ पाती। वह या तो चरी जाती है, या पांव तले रौंदी जाती है।फिर भी वह ढीठ , धरती को पकड़े , खिल खिलाती रहती है।/बरगद का पेड़ नन्हें पक्षियों की भीड़ को /अपने कांधों पर बिठाता है,पशुओं और मनुष्यों को अपनी छाया में सहलाता है।
उन्होंने कविता −गीत के साथ गजल भी लिखीं।एक गजल− एक सपना बिखर गया अपना,यों लगा कोई मर गया अपना/जलती दोपहर साथ कौन चले, जब कि साया भी डर गया अपना।
मनुष्य जीवित है, में उन्होंने जीवन की परिभाषा रचते बिलकुल नए प्रतीक लिए। वे कहतें हैं− सोहनी की तरह नदी तैर कर,पार से आती हुई बंशी की तान,या किसी गीत के धीमे− धीमें स्वर, या कांसे सी खनकती हुई हंसी। ये सब निशानी हैं इस बात की कि मनुष्य अभी जीवित है।उसने तन के लिए मन को भले ही गिरवीं रख दिया हो,परतुं उसे बेचा नही है।
महानगर और बसंत पर उनके प्रतीक , उपमान पढ़ते ही बनते हैं− कवि कहता है−अंगड़ाई लेते हुए नटखट दिन, सिमटती हुई शर्मीली रातें/कैलेंडर के बेहरूपिए पन्ने/ कहते हैं बसंत आ गया है। किंतु मैं कैसे मान लूं− न कोयल की कूक,न बौर की भीनी महक,न पवन में मस्ती, न मन में आह्लाद/ मैं कैसे मान लूं, बसंत आ गया है।−−−− यहां बसंत की संगिनी सुगंध सैंट की शीशियों में बंद है।क्रीम और पाउडर के डिब्बों में बंद है/जब चाहो बाजार से खरीद लो,घुटन भरा मन और बंद कमरे में महक लो।
इस सभ्य महानगर में , एक गवांर और
अजनबी बसंत का क्या कामॽ
उत्सुक जी के गीत तो लाजवाब हैं− इक काया कि खातिर मैंने/ पूजा सा मन बेच दिया,इससे बढ़कर क्या लाचारी/ जब अपनापन बेच दिया।घुटन,निराशा , पहले से थी/नए ताप,कुछ और बढ़े,/लगता है अंगारे लेकर, मैंने चंदन बेच दिया।रोम− रोम अपनी काया का,कांटो जैसा चुभता है/किस बबूल की खातिर मैंने अपना मधुबन बेच दिया1 इच्छा और अनिच्छा के शिशु खेंले अपने खेल कहां/जबकि पिता ने लाचारी में ,घर का आंगन बेच दिया।
लेखक के अलग तरह के प्रतीक हैं। अलग तरह के सवाल। ये प्रतीक और ये सवाल एक एक पंक्ति कों पढ़ने, उसे समझने और महसूस करने को मजबूर कर देतें हैं−
मैं तुमसे नही, तुम्हारे पांव से पूछता हूं,यू लड़खड़ाते हुए/ भूल भुलैया में कब तक भटकते रहोंगेॽकब आएगी तुम्मे दृढता/कि तुम अंगारों या हिमानियों को/ लांघकर कब अपने लक्ष्य तक पंहुचोंगेॽ−−−मैं तुमसे नहीं/तुम्हारी आंखों से पूछना चाहता हूं/गांधारी की पट्टी कब उतरेगीॽकब तक प्रकाश को नकारोगी तुम ॽओ अंधकार में डूबी आखों, कब देखोगी अपने घाव।
इसी कविता में कवि देश की जनता से सवाल करता है−मैं तुमसे नही/ तुम्हारें हाथों से पूछना चाहता हूं/ कब तक उठाए रहोगे पराए झंडेॽकब तक जकड़े रहोगे हथकड़ियों में , ये हथकड़ी , तुम्हें घाव पर मरहम भी नहीं लगाने देंगीॽ
कवि के प्रेम के गीत भी लाजवाब हैं− मैं किसी के प्यार का अब तो पुजारी हो गया हूं,मैं किसी के द्वार का अब तो भिखारी हो गया हूं।बन चुका हूं हिरन सी आंखों का मैं खुद ही शिकार,उल्टे दुनिया कह रही है, मैं शिकारी हो चुका हूं।
कविता संग्रह जीवन एक रंग अनेक में एक से एक बढ़कर 211 कविता , गीत और गजल हैं।सब अलग तरह के गीत, अनछुई की कवितांए,कोमलांगी से प्रतीक हैं। अभिज्ञान शाकुंतलम् में राजा दुष्यंत शकुंतला को देखकर कहते हैं − यह एक ऐसा फूल है, जिसे किसी ने सूंघा नहीं,ये ऐसा नव पल्लव है जिस पर किसी के नाखून की खंरोंच के निशान नहीं लगे, ऐसा रत्न है जिसमें अभी छेद नही किया गया,और ऐसा मधु है जिसका स्वाद किसी ने नही चखा।
ऐसा ही इस संग्रह के साथ है।एक एक रखना लाजवाब, अलग तरह की ।इस संग्रह के प्रकाशक डा दिनेश शर्मा क्रास रोड देहरादून ,उत्तरांचल हैं।
अशोक मधुप